बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 28)
बिल्लेसुर के अपने मकान के इतने हिस्से हुए थे कि बकरियों को लेकर वहाँ रहना असम्भव था।
भाइयों को राजयक्ष्मा न होने के कारण बकरियों की गन्ध से ऐतराज़ होता।
दूसरे, पुराना होकर घर कई जगह गिर गया था।
रात को भेड़िये के रूप से चोर आ सकते थे और बकरियों को उठा ले जा सकते थे।
ऐसे अनेक कारणों से बिल्लेसुर ने गाँव में एक खाली पड़ा हुआ पुराना मकान रहने के लिये लिया।
खरीदा नहीं; यह शर्त रही कि छायेंगे, छोपेंगे, गिरने से मकान को बचाये रहेंगे।
नोटिस मिलने पर छः महीने में मकान ख़ाली कर देंगे। मालिक मकान पर देश में रहते थे, एक तरह वहीं बस गये थे।
जिनके सिपुर्द मकान था, वे सोलह आने नज़र लेकर बिल्लेसुर पर दयालु हो गये थे।
यह मकान परदेशी का होने के कारण वज़ादार हो यह बात नहीं। परदेशी जब इस मकान में रहते थे, बिल्लेसुर की ही तरह देशी थे।
देश की दीनता के कारण ही परदेश गये थे।
मकान के सामने एक अन्धा कुआ है और एक इमली का पेड़।
बारिश के पानी से धुलकर दीवारें ऊबड़-खाबड़ हो गई है, जैसे दीवारों से ही पनाले फटे हों।
भीतर के पनाले का मुँह भर जाने से बरसात का पानी दहलीज़ की डेहरी के नीचे गड्ढा बनाकर बहा है।
गड्ढा बढ़ता-बढ़ता ऐसा हो गया है कि बड़े जानवर, कुत्ते जैसे आसानी से उसके भीतर से निकल सकते हैं।
दहलीज़ की फ़र्श कहीं भी बराबर नहीं; उसके ऊपर लेटने की बात क्या, चारपाई भी उस पर नहीं डाली जा सकती।
दूसरी तरफ़ एक ख़मसार है और उसी से लगी एक कोठरी। इसी में बिल्लेसुर आकर रहे।
दरवाज़े का गढ़ा तोप दिया। बाक़ी घर की धीरे धीरे मरम्मत करते रहे।